E-103 (UNIT-04-AND UNIT-05 ) HINDI MEDIUM NOTES

 E-103

unit -04 and unit -05 

         मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Mental Health)                 

                                        शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है। यह एक प्रसिद्ध कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का आवास होता है। मानव शरीर में मस्तिष्क का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के द्वारा जो भी कार्य किये जाते हैं वे मस्तिष्क के संकेत पर अथवा मन के अनुसार किये जाते हैं। जब मन स्वस्थ नहीं होता तो हम किसी कार्य को ठीक से नहीं कर पाते। स्वस्थ मन वाले लोग ही जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का सामना सफलतापूर्वक कर पाते हैं। जिनका मन स्वस्थ नहीं होता वे विभिन्न प्रकार की उलझनों में फँसे रहते हैं। आज व्यक्ति का जीवन अधिकाधिक जटिल होता जा रहा है।

                              मानव जीवन में पग-पग पर अनेक प्रकार की कठिनाइयों और निराशाओं का सामना करना पड़ता है। मानसिक उलझनों के फलस्वरूप मनुष्य समाज में समायोजित करने में कठिनाई अनुभव करता है। इन परिस्थितियों में मनुष्य का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अत्यन्त आवश्यक है। संसार में वही व्यक्ति भौतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में अपने को समायोजित कर पाते हैं जिनका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होता है। फलस्वरूप, मनुष्य को अपने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही मानसिक स्वास्थ्य की ओर भी ध्यान देना चाहिए। शिक्षा मनो विज्ञान के अन्तर्गत व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों पर विचार किया जाता है।

                                         व्यक्तित्व का विकास उसी स्थिति में सम्भव है जब बालक का शरीर एवं मन पूरी तरह से स्वस्थ हो, क्योंकि शरीर और मन का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि शिक्षण प्रक्रिया का सम्बन्ध मानसिक विकास, मानसिक शक्तियों और योग्यताओं से ही है। शिक्षण प्रक्रिया को सफल बनाने हेतु शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना आवश्यक है, अतएव मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के स्वरूप पर विचार करने के पश्चात् बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों और मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने के उपायों पर प्रकाश डालना आवश्यक है।

.विभिन्न विद्वानों ने मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषाएँ विभिन्न प्रकार से दी हैं। यहाँ हम इनमें से प्रमुख परिभाषाएँ दे रहे हैं-

1. हेडफील्ड- “साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य करना है।

2. लैण्डेल- “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है- वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य स्थापित करने की योग्यता

3. कुप्पूस्वामी- “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है दैनिक जीवन में भावनाओं, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आदर्शों में सन्तुलन रखने की योग्यता इसका अर्थ है जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने और उसको स्वीकार करने की योग्यता

 

 

 

 

 

 

मानसिक स्वास्थ्य की विशेषताएं- (Characteristics of Mental Health)-

1 मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति का स्वयं का और अपने वातावरण से ढालने की क्षमता है।
2
मानसिक स्वास्थ्य को बरकरार रखने हेतु मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की जानकारी आवश्यक है।
3
स्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य से ही हम स्वस्थ मानव संबंधों का विकास कर सकते हैं।
4
मानसिक स्वास्थ्य के कारण ही व्यक्ति अपने परिवार में संतुलन बनाए रखता है।
5
मानसिक स्वास्थ्य से ही व्यक्ति अपने जीवन तथा समाज में भी उचित संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।

 

बालक के मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रखने के उपाय (Measures to Keep Good Mental Health of the Child)

बालक के शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही उसके मानसिक स्वास्थ्य का विशेष महत्त्व है। बालक के मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रखने में परिवार, विद्यालय और समाज का विशेष योगदान होता है। यहाँ बालक के मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रखने और उन्नत करने में परिवार, विद्यालय और समाज की भूमिका की विवेचना की जा रही है-

() परिवार के कार्य

बालक के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करने में परिवार की महती भूमिका होती है। परिवार बालक के मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रखने में निम्न प्रकार से सहायक हो सकता है-

(1) विकास के लिये आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करना  

                              विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि मानसिक रूप से स्वस्थ बालक में 6 वर्ष की आयु में स्वतन्त्रता, आत्मविश्वास एवं उत्तरदायित्व की भावनाओं का विकास हो जाता है। परिवार को बालक की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति, उसकी रुचि एवं आकांक्षाओं के हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए जिससे उसे मानसिक योग्यता के विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त हो सके।

(2) परिवार का स्वस्थ वातावरण- 

                                                 बालक के मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने हेतु परिवार का वातावरण स्वच्छ और शान्तिपूर्ण होना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों में प्रेम और सद्भावना होनी चाहिए। बालक को उसकी रुचि के अनुसार कार्य करने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यदि परिवार में स्वस्थ और शान्तिपूर्ण वातावरण नहीं होगा तो बालक का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जायेगा।

(3) माता-पिता का उचित व्यवहार- 

                                                माता-पिता का उचित व्यवहार बालकों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और विकास में सहायक होता है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान कुप्पूस्वामी ने लिखा है- जो माँ अपने बच्चों को प्रेम और सुरक्षा प्रदान करती है, वह उनके मानसिक स्वास्थ्य में सहयोग देती है। जो पिता अपने बच्चों के साथ अपना जीवन और समय व्यतीत करता है, वह उनके स्वस्थ मानसिक दृष्टिकोण का विकास करने में सहायता करता है।

() विद्यालय के कार्य

विद्यालय में मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति के लिए निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

(1) स्वच्छ वातावरण- 

                             विद्यालय का वातावरण इस प्रकार का होना चाहिए कि बालक का समुचित रूप से शारीरिक और मानसिक विकास हो। यदि बालक का शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहेगा तो उसका मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सन्तुलित आहार, समुचित विश्राम, ठीक समय पर रोग का उपचार आदि आवश्यक है। शारीरिक स्वास्थ्य का प्रभाव बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। अतः विद्यालयों का यह कर्त्तव्य है कि वे उन साधनों को अपनायें जिनके द्वारा बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहे। विद्यालय में नियमित शारीरिक शिक्षा, भोजन, विश्राम, खेल-कूद, व्यायाम, स्वच्छता तथा रोगों के उपचार आदि की व्यवस्था होनी चाहिए।

(2) शिक्ष का स्नेहपूर्ण व्यवहार- 

                                          यदि विद्यार्थियों के प्रति शिक्षक का व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण है तो इससे अध्यापक के प्रति आदरभाव उत्पन्न होता है। वे स्वतन्त्रता और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। ऐसे वातावरण में वे अपने शिक्षकों का आदर करते हैं और उसके निर्देशों का पालन करने का प्रयास करते हैं। उनका अच्छा मानसिक विकास होता है जो उनके मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखने में सहायक होता है। इसके विपरीत यदि शिक्षक का व्यवहार अपने विद्यार्थियों के प्रति भेदभावपूर्ण या रूखा है तो शिक्षक को उनसे आदर नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी शिक्षक का कहना नहीं मानते और ऐसे कार्य करते हैं जिनसे उसे खीझ आती है। ऐसे कार्य का विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

(3) सन्तुलित एवं उचित पाठ्यक्रम- 

                                             असन्तुलित पाठ्यक्रम के बोझ से विद्यार्थियों को मानसिक थकान होती है। वे अध्ययन में कम रुचि लेते हैं और पढ़ाई को एक बोझ समझने लगते हैं। अतः यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम सन्तुलित हो, जिससे कि उनके ज्ञान में अपेक्षित वृद्धि हो सके और उनके मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव पड़े। यह भी आवश्यक है कि पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाओं के द्वारा अध्ययन के प्रति विद्यार्थियों में रुचि का विकास किया जाय। रुचिजन्य अध्ययन में वेद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य का समुचित विकास होता है।

(4) सन्तुलित गृह-कार्य- 

                               विद्यार्थियों को उतना ही गृह कार्य दिया जाना चाहिए जितना कि प्रतिदिन उसे पूरा करना सम्भव हो। गृह कार्य को बोझ-सा नहीं होना चाहिए। शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक विद्यार्थी की मानसिक क्षमता एवं उसके शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर गृह-कार्य दे। यदि गृह-कार्य सन्तुलित है तो विद्यार्थी उसे सहर्ष पूरा करने का प्रयास करेगा। इससे उसके ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी और उसका मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा होगा।

(5) खेल और मनोरंजन की समुचित व्यवस्था- 

                                                             मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए खेल और मनोरंजन का बहुत अधिक महत्त्व है। जब मस्तिष्क अध्ययन कार्य के फलस्वरूप थक जाता है तो खेल और मनोरंजन द्वारा मानसिक स्फूर्ति एवं ताजगी पुनः प्राप्त हो जाती है और व्यक्ति अपने कार्य पूर्ण रुचि और उत्साह के साथ करने लगता है। खेल-कूद और मनोरंजन के द्वारा मस्तिष्क में दमित भावनाओं को मार्ग मिलता है और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। अध्ययन के बोझ से राहत देने के लिए आवश्यक है कि शिक्षक अपने नेतृत्व में विद्यार्थियों के लिए स्वस्थ खेल और मनोरंजन की व्यवस्था करें। खेल और मनोरंजन रोचक कार्य करते हैं। विद्यालय में स्काउटिंग और सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि का भी आयोजन किया जाना चाहिए।

(6) बाल केन्द्रित शिक्षण विधियाँ- 

                                             प्रायः ऐसा होता है कि बालक चालू शिक्षा विधि की नीरसता के कारण पढ़ाई में ध्यान नहीं देते और उनकी रुचि कम हो जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि विद्यालय में बाल केन्द्रित शिक्षण विधियाँ अपनाई जायें, जैसे खेल विधि, प्रोजेक्ट विधि तथा मॉण्टेसरी विधि आदि। इन नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग से, जो क्रिया व्यवहार, अभ्यास, स्नायुभाव और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर आधारित हैं, बालक का स्वस्थ मानसिक विकास होता है।

(7) शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन-

                                                         बालकों के अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि विद्यालय में उन्हें समुचित शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन प्राप्त हो यदि ऐसा होगा तो बालक विभिन्न विषयों के अध्ययन में रुचि लेगा और उसका अच्छा बौद्धिक विकास होगा। यदि अच्छा विकास होगा तो उसका मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा।

(8) संवेगात्मक सुरक्षा की व्यवस्था-

                                                       मानसिक स्वास्थ्य के लिए समुचित संवेगात्मक विकास अत्यन्त आवश्यक है। यदि संवेगों में सन्तुलन नहीं है तो बालकों के मन में मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न होगा और उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बालक के संवेगात्मक सन्तुलन के लिए आवश्यक है कि उन्हें सहानुभूति और प्यार से शिक्षा दी जाये। उन्हें यह नहीं अनुभव होने देना चाहिए कि उनके ऊपर बहुत कड़ा नियन्त्रण है और वे विद्यालय में असुरक्षित हैं। अतः विद्यालयों में बालकों की संवेगात्मक सुरक्षा को ध्यान में रखना चाहिए।

(9) संकल्प-शक्ति का सिद्धान्त- 

                                          अच्छे चारित्रिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए दृढ़ संकल्प का बहुत अधिक महत्त्व है। वास्तव में संकल्प-शक्ति जितनी ही दृढ़ होगी उतना ही मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होगा। दृढ़ संकल्प वाला व्यक्ति भावना-ग्रन्थियों तथा मानसिक द्वन्द्वों से सफलतापूर्वक लड़ सकता है। अतः विद्यालय में इस बात की व्यवस्था होनी चाहिए कि बालकों को ऐसा अवसर प्राप्त हो जिसमें उनकी संकल्प शक्ति सुदृढ़ हो।

(10) छात्रों के कार्यों को समुचित मान्यता  

                                                            मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मानसिक द्वन्द्वों तथा कुसमायोजन से बालकों का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। प्रत्येक छात्र अपने कार्यों की मान्यता चाहता है। जब उसे यह मान्यता नहीं मिलती तो उसके संवेग को ठेस पहुँचती है और वह असामाजिक बातों की ओर आकर्षित हो जाता है तथा अपराध करने लगता है। अतः इस बात की आवश्यकता है कि विद्यालय में छात्रों के कार्यों को समुचित मान्यता प्राप्त हो और उनमें मानसिक द्वन्द्व तथा कुसमायोजन उत्पन्न होने पाये।

(11) साहसपूर्ण कार्यों को प्रोत्साहन-

                                                         छात्रों में साहसपूर्ण कार्य करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। वे मोटर के पीछे भागते हैं, दीवाल पर चढ़ते हैं, तालाब में छलांग लगाते हैं और ऐसे ही अन्य साहसपूर्ण कार्य करते रहते हैं। उनमें क्रियाशीलता अधिक होती है। अतः यह आवश्यक है कि छात्रों की इस क्रियाशीलता को साहसपूर्ण सृजनात्मक कार्य में लगाया जाय। इसके लिए विद्यालय में स्काउटिंग एवं पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाओं की व्यवस्था होनी चाहिए।

(12) अच्छी मित्रमण्डली की व्यवस्था- 

                                                  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रहना चाहता। सामाजिक जीवन के लिए संगी-साथियों एवं मित्रों की आवश्यकता होती है। बालक अभिव्यक्ति के लिए संगी-साथी तथा मित्रों के साथ रहना चाहता है। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि बालकों में कुसमायोजन का एक कारण मित्रों का अभाव है। विद्यालय में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि बालकों के परस्पर सम्पर्क में वृद्धि हो और उन्हें अच्छे मित्र मिलें। इससे बालक में सहयोग की भावना उत्पन्न होती है, जो मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाने में सहायक होती है।

(13) अच्छी आदतों का निर्माण- 

                                           मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए छात्रों में अच्छी आदतों का निर्माण किया जाना चाहिए। शिक्षकों को बालकों में नियमित जीवन, सन्तुलित खान-पान और सादा जीवन उच्च विचार की आदतें डालने का प्रयास करना चाहिए।

(14) धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था-

                                               बालक को नैतिक चारित्रिक विकास से सम्बन्धित बातें बताई जानी चाहिए। इससे उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास होता है तथा मानसिक विकास में भी योगदान मिलता है।

(15) शिक्षक-अभिभावक परिषद की व्यवस्था  

                                                             बालक की शिक्षा में परिवार में अभिभावक का विशेष योगदान होता है, इसलिए बालक के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए शिक्षकों और अभिभावकों को मिलकर समय-समय पर विचार-विमर्श करना चाहिए। इस कार्य के लिए शिक्षक अभिभावक परिषद की स्थापना की जानी चाहिए।

(16) मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों से परामर्श- 

                                                              विद्यालय में बालकों के मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करने तथा उनका निदान करने हेतु मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों से परामर्श लिया जाना चाहिए। समस्यात्मक बालकों का अध्ययन करने के लिये विशेषज्ञों का परामर्श लिया जाना चाहिए और उनके उपचार की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।

(17) प्रगति एवं आचरण व्यवहार का लेखा रखना- 

                                                                    बालकों के मानसिक स्वास्थ्य के विकास के लिए विद्यालय में बालकों की आवश्यकता एवं आचार-व्यवहार का लेखा रखना अत्यन्त आवश्यक है। इसे देखकर शिक्षक और अभिभावक बालकों के मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति हेतु प्रयास कर सकते हैं।

(18) अच्छी नागरिकता की शिक्षा प्रदान करना- 

                                                                 विद्यालय में आरम्भ से बालकों को अच्छा नागरिक बनने की शिक्षा दी जानी चाहिए। समाज का सदस्य होने के नाते सामाजिक गुणों के विकास के लिये विभिन्न विषयों के माध्यम से और विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा आदर्श नागरिकता और सामाजिकता की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

() समाज-सम्बन्धी कार्य

                                         बालक के मानसिक स्वास्थ्य में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाला तीसरा अभिकरण समाज है। विद्यालय बालक को समाज की प्रत्याशाओं के अनुरूप ढालने में प्रयासरत रहते हैं, किन्तु निम्नलिखित कार्यों की पूर्ति समाज द्वारा ही सम्भव है-

1.      बालक की मौलिक आवश्यकताओं; यथा- प्रेम, स्नेह, वात्सल्य और प्रसन्नता की पूर्ति

2.      बालक को सुख और सुरक्षा प्रदान करना।

3.      बालक के संवेगात्मक-सामाजिक विकास के लिये पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराना।

4.      बालक के सर्वांगीण विकास के लिए उत्तम शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करना

5.      बालक में लोकतान्त्रिक नागरिकता के गुणों को प्रोत्साहित करना

6.      बालक में सामुदायिक तथा राष्ट्रीय भावनाओं का विकास करना।

7.      जातीय विद्वेष, सामाजिक विद्वेष, राजनीतिक प्रपंच तथा धार्मिक उन्माद आदि की समाप्ति करके बालक के सम्मुख स्वस्थ सामाजिक परिवेश का विकास करना।

8.      भावात्मक एकता के लिये प्रयास करना।

 

समायोजन

मनुष्य सदैव अपनी किसी किसी प्रकार की आवश्यकताओं से घिरा रहता है। सामाजिक एवं मानसिक प्राणी होने के नाते वह अपनी इन विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है। मनुष्य क्योंकि एक बुद्धियुक्त प्राणी है अतः वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं के प्रति सजग रहता है तथा स्वयं ही इनकी पूर्ति करने के प्रयत्न तथा उपाय करता है।

अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में ही वह अपने वातावरण के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। वह जब तक आवश्यकता की पूर्ति के सन्दर्भ में ही वह अपने वातावरण के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। इस हेतु वह भौतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही प्रकार के वातावरण से सम्पर्क स्थापित करता है।

वह जब तक आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो जाती, उनकी सन्तुष्टि के लिए प्रयत्नशील रहता है। जब तक आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती वह तनाव तथा बैचेनी की स्थिति में रहता है। यह स्थिति कष्टदायक होती है अतः इसे दूर करने हेतु वह प्रयत्न करता है। इसके लिए वह प्रयास करता है।

इन प्रयासों को हम प्रेरक (Motives) तक चालक (Drive) करते हैं। प्रयासों के आगे उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग में कई प्रकार की बाधायें आती हैं। बाधाओं की पश्चात् जब उद्देश्य प्राप्त हो जाता है तो आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है तथा तनाव की कष्टदायक स्थिति समाप्त हो जाती है।

यदि किन्हीं कारणों से बाधायें पार की जा सकें तो उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी अतः आवश्यकता की पूर्ति भी नहीं होगी। तब व्यक्ति भग्नाशा (Frustration) से पीङित हो जाता है। लम्बे समय तक भग्नाशा में रहने से व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पङता है वह कुसमायोजन का शिकार हो जाता है तथा असामाजिक व्यवहार करने लगता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को एक रेखाचित्र से स्पष्ट किया जा सकता है-

समायोजन का मनोविज्ञान  

 

 


बाधायें यदि सीधे-सीधे प्राप्त हो तो प्राणी मार्ग बदलकर उद्देश्य (Objectives) तक पहुँचना चाहता है। उद्देश्यों तक पहुँचने के कारण भग्नाशा होती है तथा इससे मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है तथा कुसमायोजन जन्म लेता है। इससे नाना प्रकार की व्यवहार जनित समस्यायें उत्पन्न होती है अतः विद्यालय में प्रयास किये जाने चाहिये कि छात्रों को कम से कम भग्नाशा हो।

समय-समय पर व्यक्ति की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं जन्म लेती रहती है। आवश्यकता के कारण प्रेरक (Motive) जन्म लेते हैं। प्रेरक व्यवहार को उद्दीप्त करने वाली शारीरिक क्रियायें हैं। (“A drive is an intra-organic activity or condition of tissue supplying stimulation for particular type of behaviour” ) प्रेरक चालकों (Drives) को जन्म देता है जिनके कारण प्राणी अपने उद्देश्यों को प्राप्त करता है।

यहाँ पर तीन स्थितियाँ जन्म ले सकती हैं-

(1) वह वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकता है अथवा नहीं भी कर सकता है।

(2) एक ही समय में विभिन्न समान महत्त्व की आवश्यकताएँ जन्म ले सकती है अतः कई प्रेरक एक साथ उदित हो सकते हैं जिनमें परस्पर संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

(3) प्रेरकों के मार्ग में बाह्य अथवा आन्तरिक बाधायें उत्पन्न हो सकती है। जो उद्देश्य प्राप्ति में रूकावटें उत्पन्न कर सकती हैं। प्रेरकों के मार्ग में आयी विभिन्न बाधाओं अथवा प्रेरकों के परस्पर अन्तद्र्वन्द्व के कारण अनेक बार अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं कर पाता है। आवश्यकता, जैसा कि हम जानते हैं, तनाव को जन्म देती हैं। मनुष्य तनाव के कारण आवश्यकता पूर्ति कर सकें तो तनाव बना रहता है तथा नैराश्य (Frustration) जन्म लेता है।

 

व्यक्ति विभिन्न उपायों से अपने नैराश्य को दूर करना चाहता है। इसका प्रमुख उपाय है अपनी आवश्यकताओं के साथ समायोजन कर लेगी अनेक बार व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाता है। वह अपनी आवश्यकताओं तथा उनकी सन्तुष्टि प्रक्रिया के साथ सन्तुलन स्थापित नहीं कर पाता है तो इस स्थिति को असमायोजन की स्थिति कहते हैं और जब व्यक्ति इनके साथ त्रुटिपूर्ण सन्तुलन स्थापित करता है तो उस स्थिति को कुसमायोजन की स्थिति कहते हैं।

 

समायोजन (Meaning/Definition)

शेफर (Shaffer) के अनुसार, ’’समायोजन वह प्रक्रिया है जिसकी सहायता से कोई जीवित प्राणी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली स्थितियों तथा आवश्यकताओं के मध्य सन्तुलन स्थापित करता है।’’
“Adjustment is a procees by which a living organism maintains a balance between its needs and the circumstances that influence the satisfaction of these needs.”

आइजनेक तथा उसके सहयोगियों (Eysenck & others) ने समायोजन के सम्बन्ध में लिखा है कि,

  ’’एक ऐसी अवस्था है जिसमें एक ओर व्यक्ति की आवश्यकतायें तथा दूसरी ओर पर्यावरण सम्बन्धी दायों की पूर्ण सन्तुष्टि होती है अथवा यह वह प्रक्रिया है जिसमें इन दोनों के मध्य सामंजस्य स्थापित हो जाता है।
“A state in which the needs of the individual on the one hand and the daims of the environment on the other hand satisfied or the process by which this harmonious relationship can be attained.”

                              उक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समायोजन से तात्पर्य व्यक्ति की विभिन्न आवश्यकताओं तथा उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली परिस्थितियों में सामंजस्य तथा सन्तुलन स्थापित करने की प्रक्रिया हैं। जब इन दोनों में सन्तुलन स्थापित नहीं हो पाता है तो व्यक्ति कुण्ठा तथा नैराश्य का शिकार होकर असामान्य व्यवहार करने लगता है। व्यवहारों में असामान्यता की स्थिति ही कुसमायोजन की अवस्था है। यदि व्यवहारों को असामान्यता गम्भीर हो जाये तो उसे हम मानसिक रोगग्रस्तता कहते हैं।

समायोजित व्यक्तित्व (Adjusted Personality)

जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा उन आवश्यकताओं की परिस्थितियों अर्थात् पर्यावरण के मध्य सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं उनके व्यक्तित्त्व का एकीकृत विकास होता है। व्यक्ति इन दोनों तत्त्वों के मध्य सन्तुलन स्थापित कर पाया है अथवा नहीं, इसकी जाँच नीचे लिखे बिन्दुओं के आधार पर की जा सकती है-

1. सन्तुलित व्यक्तित्व (Balanced Personality) –

                                                              जो व्यक्ति अपने जीवन में आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं उनके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता है। व्यक्ति विकास के कई आयाम (Dimensions) होते हैं। यदि व्यक्ति किसी एक आयाम में अपेक्षाकृत अन्य आयामों कम या अधिक विकास कर लें तो वह सन्तुलित विकास नहीं होता है। समायोजित व्यक्ति अपने व्यक्तित्त्व के सभी पक्षों का सन्तुलित विकास करता है।

2. तनाव में कमी (Less Tension) –

                                                  मानसिक रोग तनाव की अधिकता का परिणाम हैं। तनाव से ही व्यवहारों में असामान्यता आती है। इसीलिए उन्हें कम करना चाहिए। वैसे तो जटिल समाज में कोई भी व्यक्ति तनाव से बच नहीं सकता है किन्तु इन्हें कम किया जा सकता है। समायोजित व्यक्ति विभिन्न उपयों से अपने तनाव को कम करते हैं।

3. आवश्यकता पर्यावरण में सामंजस्य (Harmony between Needs and Environment) –

                                                     समायोजित व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में ये सामंजस्य बनाये रखता है। वह पर्यावरण के अनुसार ही अपनी आवश्यकता का हल तलाश करता है तथा उसी के अनुसार आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करता है। पर्यावरण के अनुसार वह अपनी आवश्यकताओं में तदनुरूप परिवर्तन करता रहता है जिससे उसे आवश्यकता पूर्ति में तो अधिक बाधाओं का सामना करना पङता है और उसे अधिक तनाव ही होता है।

 

समायोजन के प्रकार (- Types of Adjustment

समायोजन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है-

1. रचनात्मक समायोजन (Constructive Adjustment) –

                                                                       रचनात्मक कार्यों के द्वारा जब कोई व्यक्ति क्षेत्र विशेष में समायोजन स्थापित करता है तो वह रचनात्मक समायोजन कहलाता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति का समायोजन धार्मिक क्षेत्र में गङबङ हो जाता है तो समाज में उपकारार्थ कुछ रचनात्मक कार्य करके अपना समायोजन कर लेता है।

 

2. स्थानापन्न समायोजन (Substitute Adjustment) –

एक क्षेत्र में समायोजन स्थापित कर पाने की स्थिति में व्यक्ति अपनी असफलता को दूसरों पर किसी अन्य रूप में प्रत्याक्षेपित कर समायोजन कर लेते हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति दूसरे राजनैतिक क्षेत्र में वांछित सफलता प्राप्त कर पाने पर व्यक्ति दूसरे राजनैतिज्ञों पर अपनी कमजोरियों को नहीं स्वीकार करेगा।

                                             आलसी छात्र परीक्षा में असफल होने पर या तो अध्यापकों को दोष देगा कि उन्होंने ठीक से नहीं पढ़ाया या परीक्षाओं पर दोषारोपण करेगा कि उन्होंने ठीक से उत्तर-पुस्तिकायें नहीं जाँची होगी। ऐसा समायोजन अल्पकालिक सन्तोष प्रदान करता है तथा समाज द्वारा अच्छा नहीं माना जाता है।

 

3. मानसिक मनोरचनायें (Mental Mechanisms) –

                              कुछ ऐसी मानसिक मनोरचनायें होती हैं जिनके द्वारा समायोजन का कार्य प्रायः सभी सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति करते हैं यह मन को समझाने की विधियाँ कहीं जा सकती हैं जब व्यक्ति अपना समायोजन बङी मात्रा में इन्हीं के द्वारा करें तो उसे हम असामान्य व्यक्ति कहते हैं।

 

*       समायोजन के सोपान – Steps of Adjustment

व्यक्ति अपने समायोजन के लिए नीचे लिखे तीन कदम उठाता है-

1. समस्या का अंकन (Appraisal of the Problem) – व्यक्ति के सामने जैसे ही आवश्यकता उत्पन्न होती है, उसके लिए तत्सम्बन्धी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति इन समस्याओं का वर्ग करता है, विशिष्ट वर्ग में रखता है, उसके समाधान क्षेत्र तलाशता है तथा उस समस्या को गम्भीरता का निर्धारण करता है।

2. निर्णय-निर्माण (Decision Making) – समस्या की गम्भीरता तथा वर्गीकरण के बाद उस समस्या के समाधान हेतु आवश्यक समाधानों की सूची तैयार की जाती है तथा प्रत्येक समाधान का आवश्यकता के सन्दर्भ में मूल्यांकन किया जाता है।

3. क्रियान्वयन (Executions) – समुचित समाधान के सम्बन्ध में निर्णय लेकर चयन करने के उपरान्त उस समाधान को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति क्रियायें प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में क्रियान्वयन के समय जो कठिनाइयाँ आती हैं उनके अनुसार वह अपनी क्रियाओं में आवश्यक संशोधन भी करता चलता है।

 

समायोजन की मात्रा – Degree of Adjustment

                                                              व्यक्ति विभिन्न आवश्यकताओं तथा उनसे सम्बन्धित पर्यावरण के साथ अलग-अलग मात्रा में समायोजन कर पाता है। कुछ व्यक्ति प्रायः सभी आवश्यकताओं के साथ सरलता पूर्वक समायोजन नहीं कर पाते हैं, जबकि कुछ सहज ही इस प्रकार का समायोजन कर लेते हैं। कुछ पूर्ण समायोजन कर पाते हैं तो कुछ-कुछ ही मात्रा में कर पाते हैं। समायोजन की सीमा तथा मात्रा के अनुसार समायोजन के चार स्तर होते हैं।

1. समायोजन प्रतिक्रियायें (Adjustment Reactions) – ये प्रतिक्रियायें वे होती हैं जो व्यक्ति के आवश्यकताओं तथा पर्यावरण के साथ पूर्ण एवं सफल समायोजन को प्रदर्शित करती हैं। इससे वह अपने वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है तथा कुण्ठाओं से बच जाता है।

2. आंशिक समायोजन प्रतिक्रियायें (Partially Adjustment Reactions) – जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण के साथ वास्तविकता से असफल होकर कल्पना लोक में समायोजन करता है तो वह आंशिक समायोजन कहलाता है। दिवास्वप्न (Day dreaming) आंशिक समयोजन प्रतिक्रिया है।

3. असमायोजन प्रतिक्रियायें (Non-adjustment Reactions) – 

                                                                             यदि व्यक्ति लम्बे समय तक ऐसी क्रियायें तथा व्यवहार करता रहे जिनके कारण उसकी आवश्यकताओं तथा पर्यावरण में सामंजस्य हो सके तो उसे असमायोजन की स्थिति कहते हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति मुख्य आवश्यकता की ओर ध्यान देकर अन्य कम महत्त्व की आवश्यकताओं की पूर्ति की ही और ध्यान देता रहे तो उसे असमायोजन की अवस्था कहते हैं।

4. कुसमायोजन प्रतिक्रियायें (Mal-adjustment Reactions) – 

                                                                   जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं तथा उनसे सम्बन्धित पर्यावरण के साथ त्रुटिपूर्ण या विरोधाभासी सामंजस्य करे तो उसे कुसमायोजन प्रतिक्रियायें कहते हैं। यह असामान्य व्यवहारों को जन्म देती हैं तथा व्यक्ति तथा समाज दोनों के ही लिए हानिप्रद है। यहाँ व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध दूषित हो जाता है।

 

समायोजन के प्रारूप – Models of Adjustment

मनोवैज्ञानिकों ने समायोजन के सम्बन्ध में वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए कई प्रारूपों का विकास किया है। इनमें से कुछ प्रमुख प्रारूपों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है-

1. व्यवहारवादी प्रारूप (Behaviouristic Model) – 

                                                                        व्यवहारवादियों द्वारा विकसित इस प्रारूप में अधिगम पर सर्वाधिक बल दिया है। इस वर्ग के विद्वानों का मत है कि अधिगम के द्वारा ही व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन किया जा सकता है। अधिगम ही मानव-व्यवहार की केन्द्रीय क्रिया है। यदि हम व्यक्ति के अधिगम का पता लगा लें तो उनके व्यवहारों का सहज ही आभास हो सकता है।

                                                        वह अपने अधिगम के अनुरूप ही व्यवहार करेगा। अधिगम पर ही व्यक्ति की समायोजन-प्रक्रिया निर्भर करती है। वह अपने अधिगम के अनुसार ही पर्यावरण के प्रति समायोजात्मक अथवा असमायोजनात्मक प्रतिक्रियायें करेगा तथा अपने अधिगम के अनुसार ही वह प्रतिक्रियाओं का आयोजन करेगा।

                                                                    व्यवहारवादियों का यह प्रारूप पूरी तरह से उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धान्त (S.R. Theory) पर आधारित है। व्यक्ति में कुछ प्राथमिक जैविक चालक (Primary Biological Motives) होते हैं। व्यक्ति में इनकी मात्रा पृथक-पृथक होती है। इन्हीं प्राथमिक जैविक चालकों के अनुसार व्यक्ति किसी उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करता है।

                                     अभ्यास तथा अनुक्रिया की पुनरावृत्ति के कारण वह एक उद्दीपक के प्रति एक विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया करना सीख लेता है। यही अधिगम है और वह अधिगम के अनुसार ही व्यवहार करता है। दूसरे शब्दों में, प्राथमिक जैविक चालकों का ही विस्तार उसके दैनिक जीवन में होता है।

दूसरे शब्दों में, प्राथमिक जैविक चालकों का ही विस्तार उसके है तो कहेंगे कि उसका समायोजन हो गया है और यदि वह उद्दीपक के प्रति समाज द्वारा स्वीकृति रीति से अनुक्रिया नहीं करता है तो कहेंगे कि उसका समायोजन नहीं हुआ है।

 

 

 

 

समायोजन की दृष्टि से उद्दीपन-अनुक्रिया का प्रक्रिया को पाँच सोपानों (Stages) में विभक्त कर सकते हैं।

1.     अनुक्रिया प्रतिबद्धता (Response Conditioning)

2.     पुनर्वलन (Reinforcement)

3.     सामान्यीकरण (Generalisation)

4.     विभेदीकरण (Discrimination)

5.     प्रारुपीकरण तथा आकृतिकरण (Modeling and Shaping)

सर्वप्रथम किसी उद्दीपक के परिणामस्वरूप व्यक्ति शास्त्रीय (Classical) अथवा कायत्मि (Operant) प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप एक विशिष्ट प्रकार की अनुक्रिया करता है। अनुक्रिया की सफलता के लिए वह पुनर्वलन का भी प्रयोग करता है।

पुनर्बलन के प्रयोग से वह किसी उद्दीपक के प्रति की जाने वाली अनुक्रिया की शक्ति को बढ़ाता है। एक उद्दीपक के प्रति लगातार एक ही प्रकार की अनुक्रिया करते-करते वह अनुक्रिया करने में पारंगत हो जाता है परिणामस्वरूप वह इस अनुक्रिया को नये-नये उद्दीपकों के प्रति भी करने लगता है।

एक अनुक्रिया का अधिगम करने के बाद जब व्यक्ति उस अनुक्रिया को नये-नये उद्दीपकों के प्रति भी स्वतन्त्र रूप से करने लगता है तो यह अवस्था ही सामान्यीकरण की अवस्था कहलाती है। इस अवस्था पर आकर ही वह विभिन्न उद्दीपकों तथा अनुक्रियाओं में विभेद करने लगता है।

एक निश्चित प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन करना ही प्रारुपीकरण है। वांछित या समुचित प्रकार की अनुक्रिया करने का प्रदर्शन ही प्रारुपीकरण कहलाता है। किन्तु वांछित या समुचित अनुक्रिया के लिए लगातार अनुमानित पुनर्बलन प्रदान करना। आकृतिकरण (Shaping) कहलाता है।

इस प्रकार व्यवहारवादियों के अनुसार अनुक्रियायें, पुनर्बलन, सामान्यीकरण तथा आकृतिकरण के द्वारा विकसित व्यवहार पैटर्न के माध्यम से व्यक्ति समायोजन करता है।

2. मनोविश्लेषणवादी प्रारुप (Psychoanalytic Model) – 

        सिग्मंड फ्रायड (Sigmund Freud) ने मनोविश्लेषणवाद का विकास किया। मनोविश्लेषणवाद मानव-व्यवहारों का अचेतन मन (Unconscious Mind) तथा काम-ऊर्जा (Sex-Urage) के सन्दर्भ में व्याख्या करता है। मनोविश्लेषणवाद के अनुसार मानव-व्यवहार रूप से व्यक्ति के अचेतन-मन तथा उसकी काम-ऊर्जा द्वारा निर्धारित होते हैं।

मनोविश्लेषणवाद के अनुसार मस्तिष्क के तीन भाग होते हैं-

(1) इदम्  (Id)

(2) इगो (Ego)

(3) सुपर ईगो (Super Ego)

                                     यदि अत्यन्त ही सरल तथा अतकनीकी भाषा में व्यक्त करें तो कह सकते हैं कि ईगो मानवीय प्रवृत्ति है, सुपर ईगो दैवीय प्रवृत्ति तथा इदम् असुरीय (राक्षीस) प्रवृत्ति है। इदम् ही अचेतन-मन का निर्माण करता है जिसमें सभी अश्लील, कुराचारी, असामाजिक तथा असुर-प्रवृत्तियों की भीङ जमा रहती है जो अपना ऋणात्मक प्रवृत्ति के कारण ईगो के माध्यम से निष्कासन हेतु निरन्तर प्रयास एवं संघर्ष करती हैं।

ये अपने निकासन हेतु उपाय भी अपनाती हैं किन्तु सुपर ईगो इन पर नियन्त्रण करता है वह केवल अच्छी प्रवृत्तियों तथा विचारों की है। कार्य रूप में परिणित करने की अनुमति प्रदान करता है।

इस स्थिति में ईगो एक द्वन्द्व तथा संघर्ष की स्थिति में फँस जाता है। यदि ईगो इस संघर्ष पूर्ण स्थिति में आकर भी समाज की मान्यताओं के अनुसार कार्य करता है, वह इदम् तथा सुपर ईगो के अधीन नहीं हो पाता तथा वास्तविकताओं के अनुसार कार्य करता है जो व्यक्ति का समायोजन हो जाता है।

यदि वह इदम् की ओर आकर्षित हो असामाजिक कार्य करने लगता है तो उसे हम अपराधी कहने लगते हैं और यदि वह सुपर ईगो की ओर आकर्षित हो जाता है तो साधु-पुरुष बनकर वास्तविकताओं से हट जाता है।

मनोविश्लेषणवाद ने अपने सभी सिद्धान्तों में कामुकता (Sexuality) पर अत्यधिक बल दिया है। एक असामाजिक कृत्य है। इसलिए काम-ऊर्जा के कारण व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के मध्य संघर्ष पाता है। यदि वह इन दोनों में तालमेल स्थापित कर लेता है तो उसका समायोजन हो जाता है।

मान्यता वह विभिन्न प्रकार के काम-अपराधों तथा कृत्यों में फँसकर असामाजिक आचरण करने लगता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि मनोविश्लेषणवाद शैशवावस्था में भी कामुक प्रवृत्ति की उपस्थिति पर जोर देता है।

कामुकता तथा इदम् के शक्तिशाली होने की स्थिति में व्यक्ति इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए बेचैन हो जाता है। यही बेचैनी चिन्ता (Anxiety) को जन्म देती है। मनोविश्लेषणवाद समायोजन प्रक्रिया में इस प्रकार उत्पन्न चिन्ता को महत्त्वहीन मानते हैं।

चिन्ता से संघर्ष कर उसे शान्त करने का कार्य ईगो पर आता है। यदि ईगो कमजोर हुआ तो वह चिन्ता पर काबू नहीं पा सकता है परिणामस्वरूप व्यक्ति चिन्ताग्रस्त  नाना प्रकार की मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाता है। यही कुसमायोजन की स्थिति है। चिन्ताओं के कारण व्यक्ति सीमा से अधिक मानसिक रचनाओं (Mental Mechanism) का प्रयोग करता है जो उसके असामान्य व्यवहार को और भी असामान्य बना देती हैं।

   

मानसिक मनोरचनायें – Mental Mechanism (Defence Mechanism)

                            मानसिक मनोरचनायें अथवा आत्म-सुरक्षा अभियांत्रकायें (Self-defence Mechanisms) वह है जिन्हें कोई व्यक्ति चेतन अथवा अचेतन मन में होने वाले संघर्षों, नैराश्य, तनाव तथा चिन्ता आदि से बचने तथा उनके साथ समायोजन करने के लिए मितव्ययता के साथ प्रयोग करता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ये तनाव तथा चिन्ता आदि से बचने का साधन है जबकि एक मानसिक रोगी के लिए ये साध्य (End) है।

                                      मानसिक रोगी अपनी मनोजात-ऊर्जा (Psychic Energy) का एक बहुत बङा भाग आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों पर ही व्यय कर देता है परिणामस्वरूप उसके पास व्यक्तित्व संगठन के लिए मनोजात-ऊर्जा शेष नहीं रहती इसलिए उसके व्यक्तित्व का संगठित विकास नहीं हो पाता है।

 

सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति द्वारा इस प्रकार की जो मनोरचनायें प्रयोग में लाई जाती हैं ,जो दी गयी है

1. दमन (Repression) – 

जब कोई संघर्षपूर्ण परिस्थिति ईगो तथा सुपरईगो द्वारा बलपूर्वक अचेतन मन पहुँचा दी जाये तो यह दमन कहलाता है।
“The part of a conflict situation which is most unacceptable to the ego and super-ego may be forced into the unconscious by the ego. When this occurs, the mechanism is called repression.”   – Brown
         दमन चेतन मन को संघर्षों से छुटकारा देने के उद्देश्य से किया जाता है। चेतन मन केवल उन्हीं इच्छाओं तथा विचारों का दमन करता है जो चेतन मन को कष्टदायक होते हैं।

2. प्रतिगमन (Regression) – 

                                               प्रतिगमन का अर्थ है वापिस जाना। मनोरचना के सन्दर्भ में प्रतिगमन का अर्थ है पूर्वावस्था की ओर वापिस लौटना, या व्यक्ति का पुनः शैशवावस्था की ओर जाकर जीवन की वास्तविक समस्याओं से अपने को दूर समझ बैठना जैसे प्रौढ़ावस्था में किसी क्षेत्र में असफल होने पर एक शिशु के समान अपनी माँ की गोद में छिपाना, या अंगूठा चूसना आदि।
“Regression is the tendency to solve the problems of life by reversing to childhood.”

3. शमन (Supression) – दमन तथा शमन में केवल इतना अन्तर है कि दमन की स्थिति में व्यक्ति को पता नहीं चलता कि कोई कष्टदायक विचार अचेतन मन में ढकेला जा रहा है किन्तु शमन की स्थिति में व्यक्ति को पता रहता है कि कोई विचार अचेतन मन में डाला जा रहा है।

4. तदात्मीकरण (Identification) – 

         तदात्मीकरण से तात्पर्य उस मनोरचना से है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने स्वयं के अहम् या आत्म को किसी अन्य व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तित करने का प्रयास करता है या अन्य व्यक्ति के व्यक्तित्व जैसा अपने व्यक्तित्व को समझने लगताहै।
“Identification  refers to the mechanism through which a person attempts to mould his own ego or self after that someone else or believes to have some other person’s personality.”    -Brown

भारत की क्रिकेट टीम के जीतने पर हम कहते हैं किहम जीत गये यहाँ हमने अपना तदात्मीकरण भारतीय क्रिकेट टीम से कर लिया है। इसी प्रकार बालक किसी प्रसिद्ध अभिनेता जैसा बोलने लगता है या अपने बालों को उसके अनुसार सम्भालता है। यह सब तदात्मीकरण है।

5. युक्तिकरण (Rationalisation) – 

जब हम कोई दोषपूर्ण युक्ति या तर्क प्रस्तुत करके अपने दोषों, असफलताओं तथा मनोशारीरिक दुर्बलताओं को छिपाते हैं तो यह युक्तिकरण है।
“Rationalisation includes those thinking processes by which the individual deceives through the concealment of the real base of his thought.”  – Mathur

लोमङी के खट्टे अंगूर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। विधान सभा चुनावों में हार जाने पर हम कहते हैं कि राजनीति बङी गन्दी चीज है क्योंकि यह जातिवाद पर आधारित हैं। आदि सभी युक्तिकरण के उदाहरण है।

6. प्रक्षेपण (Projection) – अपने दोषों, अवगुणों असफलताओं तथा दुर्बलताओं को दूसरों पर आरोपित करना ही प्रक्षेपण कहलाता है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर हम परीक्षा को दोष देते हैं, चुनाव में पराजय के बाद विरोधी विजेता को बेईमानी से विजय पाने का बहाना करते हैं। इसी प्रकार अन्य मामलों में भी व्यक्ति अपने दोषों को दूसरे पर प्रत्यारोपित कर अपने मन को समझाता है या दूसरों के सामने अपनी कमजोरियाँ छिपाता है।

7. क्षति पूर्ति (Compensation) – एक क्षेत्र में असफल रहने पर व्यक्ति दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर प्रथम क्षेत्र की क्षति को दूसरे क्षेत्र में पूर्ति कर लेता है। पढ़ाई लिखाई में असफल रहने पर खेल के मैदान में सफलता प्राप्त कर छात्र पढ़ाई-लिखाई की क्षति पूर्ति करता है। अंधा अच्छा गवैया बनकर क्षति पूर्ति करता है। यह चेतन या अचेतन दोनों ही मन से सम्भव है।

8. मार्गान्तीकरण (Sublimation) – जन्मजात, प्राकृतिक तथा असामाजिक प्रवृत्तियों तथा इच्छाओं के मूल रूप को बदलकर उन्हें सामाजिक रूप प्रदान करना ही मार्गान्तीकरण कहलाता है।
“Sublimation is the redirecting of libidual impulses or motives to ethical, cultureal and social objectives.”  – Fisher

कोलमैन के अनुसार मार्गान्तीकरण का अर्थ सामाजिक रूप से स्वीकृत ऐसे उद्देश्यों को स्वीकार करने से है, जो उस प्रेरक का स्थान लेते, जिसकी अभिव्यक्ति का मार्ग सामाजिक रूप से बन्द हो गया है। उदाहरण के लिए पत्नी की फटकार सुनकर पत्नी-प्रेम को तुलसीदास ने राम-प्रेम में बदल दिया यही मार्गान्तीकरण है।

9. प्रतिक्रिया-निर्माण (Reaction Formation) – एक क्षेत्र में प्रयास करने पर भी सफलता मिले तो व्यक्ति ठीक उसके विपरीत क्षेत्र में प्रयास करने लगता है। यहाँ मूल इच्छा का दमन नहीं किया जाता, वरन् मूल इच्छा के ठीक विपरीत इच्छा विकसित कर ली जाती है।

धनी बनने की इच्छा की पूर्ति होने पर व्यक्ति निर्धनता के गुण गाने लगता है। या गोरा सुन्दर बनने में सफल रहने पर काली सुन्दरता (Black Beauty) की प्रशंसा करने लगता है। किशोरी बाल लम्बे होने पर बाब हेयर अपना लेती है। यह सब प्रतिक्रिया-निर्माण के ही उदाहरण है।

10. रूपान्तरीकरण (Conversion) – किसी क्षेत्र में असफलता के भय के कारण अचेतन मन की सहायता से हम ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देते हैं कि वह असफलता के प्रति कोई सशक्त बहाना मिल जाता है परीक्षा के ठीक पूर्ण बुखार जाना, इसका उदाहरण है। ब्राउन के अनुसार यह ऐसी मनोरचना है जिसके माध्यम से दमित मूल प्रवृत्ति की शक्तियों शारीरिक रोगों के क्रियात्मक लक्षणों के रूप में प्रकट होती हैं।
“Conversion is the mechanism through which repressed wills along with the prestration of basic drives in changed (converted) into the functional system of bodily disease.”

11. दिवास्वप्न (Day dreaming) – खाली बैठे-बैठे मन के लड्डू खाना, हवाई किले बनाना सभी दिवास्वप्न है। मन ही मन अकबर या सिकन्दरे आजम बन जाना, या हवाई जहाज की सैर करना, या परी-लोक में विचरण करना या किसी सुन्दरी के सहवास की कल्पना करना दिवास्वप्न ही है। यह मानसिक संघर्षों, इच्छाओं, तथा प्रेरकों की कल्पना में तृप्ति है।

12. विस्थापन (Displacement) – मूल प्रेरणा, प्रवृत्ति तथा इच्छा से हटकर किसी मूलतः भिन्न प्रवृत्ति तथा इच्छा की ओर अग्रसर होना ही विस्थापन है। उदाहरण के लिए अधिकारी पर गुस्सा उतार सकने पर व्यक्ति अपना गुस्सा कार्यालय से घर आकर बच्चे पर अपना गुस्सा उतारता है। सास से झगङा होने पर बहू गुस्सा बर्तनों पर उतारती है। यह विस्थापना के ही उदाहरण हैं।

 

कुसमायोजन को रोकने हेतु उपाय (Measures to Control Maladjustment)-

                         सामान्य मानसिक स्वास्थ्य वाला तथा मानसिक असन्तुलन से ग्रस्त व्यक्ति दोनों ही आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों का सहारा लेते हैं किन्तु मानसिक रूप से अस्वस्थ (असन्तुलित व्यक्तित्व) व्यक्ति इन अभियांत्रिकियों का सीमा से बाहर कहीं बहुत ही प्रयोग करते हैं। विद्यालय तथा शिक्षक इस दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं।

छात्रों को भग्नाशा का शिकार होना पङे इस दिशा में अध्यापक तथा विद्यालय निम्नांकित कार्य कर सकते हैं-

  • ·         बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाए। इस हेतु विद्यालय में उचित मात्रा में खेल-कूद की सुविधा हो।
  • ·         समुचित संवेगात्मक विकास हो, इस हेतु प्रयास किये जाए। अध्यापक स्वयं संवेगात्मक रूप से सन्तुलित हों तथा वे छात्रों के संवेगों पर समुचित ध्यान दें।
  • ·         अध्यापक का व्यवहार स्नेहिल तथा सहयोगात्मक हो। शिक्षक किसी भी परिस्थिति में द्वेष-भावना से पक्षपूर्ण व्यवहार करें।
  • ·         अध्यापकों के व्यवहारों में एकरूपता होनी चाहिए। उसके कर्म, व्यवहार तथा कथनी में अन्तर नहीं होना चाहिए।
  • ·         छात्रों के आकांक्षा-भार को समुचित स्तर पर रखा जाये। इस हेतु उनकी क्षमतायें, रुचियों तथा अभियोग्यताओं को ध्यान में रखा जाये।
  • ·         हानिकारक प्रतिस्पर्धाओं पर नियंत्रण लगाया जाये।
  • ·         प्रयास किये जाये कि छात्र आत्म-सुरक्षा अभियांत्रिकियों का कम से कम प्रयोग करें।
  • ·         उनका पाठ्यक्रम उनके अनुकूल हो, शिक्षण विधियाँ अनुकूल हो तथा उन्हें शिक्षण-अधिगम के लिए पर्याप्त सुविधायें दी जाये।
  • ·         छात्रों को पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जाये तथा स्वानुशासन की व्यवस्था की जाये।
  • ·         नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
  • ·         शैक्षिक, व्यावसायिक, व्यक्तिगत तथा यौन-निर्देशन की समुचित व्यवस्था हो।
  • ·         अध्यापकों का मानसिक स्वास्थ्य सन्तुलित हो।
  • ·         पाठ्यक्रम आधुनिकतम रखा जाये।


 

UNIT-05

व्यक्तित्व की संकल्पन (Concept of Personality)

'व्यक्तित्व' अंग्रेजी भाषा के पर्सनैलिटी (Personality) शब्द का हिंदी रूपांतर है। व्यक्तित्व शब्द लैटिन भाषा के 'परसोना' (Persona) शब्द से लिया गया है।मुख्यतः परसोना का अर्थ मुखौटा या नकली चेहरा से है जिसका प्रयोग नाटक के पात्र अपना रूप परिवर्तन करने हेतु किया करते हैं।अतः प्रारंभ में व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति की शारीरिक रचना, वेशभूषा और रंग-रूप से लगाया जाता था और जो व्यक्ति अपने बाहरी गुणों के माध्यम से अन्य व्यक्तियों को जितना अधिक प्रभावित कर लेता था उसका व्यक्तित्व उतना ही अच्छा और प्रभावशाली समझा जाता था।किंतु वर्तमान समय में व्यक्तित्व का मूल्यांकन व्यक्ति के समस्त आंतरिक एवं बाह्य गुणों के आधार पर किया जाने लगा है, समाजशास्त्रीय मतानुसार "व्यक्तित्व उन समस्त गुणों का संगठन है जो कि समाज में व्यक्ति का कार्य तथा पद निर्धारित करता है।"

व्यक्तित्व की परिभाषाएं (Personality Definition)

 विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व की जो परिभाषाएं दी है उन्हें निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है। 

1. डैशियल के अनुसार ”व्यक्तित्व व्यक्ति के सभी व्यवहारों का वह समायोजित संकलन है, जो उसके  सहयोगियों में स्पष्ट रूप से दिखाई दे।

2. ड्रेवर के अनुसार “व्यक्ति के दैहिक, मानसिक, नैतिक तथा सामाजिक गुणों के गतिशील और सुसंगठित संगठन के लिए, व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग किया जाता है।

3.  एलपर्ट के अनुसार  “व्यक्तित्व, व्यक्ति में उम्र मनोदय 1 अवस्थाओं का गत्यात्मक संगठन है, जिनके आधार पर व्यक्ति अपने परिवेश के साथ समायोजन स्थापित करता है।

4.  बिग तथा हंट के अनुसार ” किसी व्यक्ति के समस्त व्यवहार प्रतिमानो  और उसकीविशेषताओं का योग ही उसका व्यक्तित्व है।

5.  बोरिंग, लैंगफील्ड तथा वेल्ड के अनुसार “व्यक्तित्व से अभिप्राय है- व्यक्ति का अपने परिवेश के साथ स्थाई तथा पूर्व समायोजन।

 

इन परिभाषा उसे व्यक्तित्व की विशेषताओं पर प्रकाश डालने वाले निम्न तथ्य प्रगट होते हैं। 

*       इसमें व्यक्ति के जीवन के सभी पक्ष  सम्मिलित होते हैं। 

*        वातावरण के साथ अपूर्व समायोजन है। 

*        यह व्यक्ति की  मनोदैहिक अवस्थाओं का संगठन है। 

*        वातावरण, व्यक्तित्व  को प्रभावित करता है। 

*        यह जन्मजात तथा  प्रवृत्तियों का योग है। 

*       इसमें व्यक्ति की गठन, व्यवहार आदि का संगठन है।

 

    व्यक्तित्व के 5 आयाम: (पांच-कारक मॉडल)

1. अनुभव के लिए खुलापन: (आविष्कारशील/जिज्ञासु बनाम सुसंगत/सतर्क) (Openness to Experience): (Inventive/Curious Vs. Consistent/Attentive)::

  • अनुभव के लिए खुलापन एक व्यक्ति की बौद्धिक जिज्ञासा, रचनात्मकता, कला के लिए प्रशंसा, भावना, रोमांच, असामान्य विचार, जिज्ञासा और अनुभव की विविधता का वर्णन करता है।
  • इसे उस सीमा के रूप में भी वर्णित किया जाता है जिस हद तक कोई व्यक्ति कल्पनाशील या स्वतंत्र होता है, और एक सख्त दिनचर्या पर विभिन्न प्रकार की गतिविधियों के लिए व्यक्तिगत वरीयता को दर्शाता है 
  • उच्च खुलेपन को अप्रत्याशितता या फोकस की कमी के रूप में माना जा सकता है।
  • इसके अलावा, उच्च खुलेपन वाले व्यक्तियों के बारे में कहा जाता है, कि वे विशेष रूप से स्काइडाइविंग, विदेश में रहने, जुआ, आदि जैसे गहन, उत्साहपूर्ण अनुभवों की तलाश में आत्म-साक्षात्कार का पीछा करते हैं।
  • इसके विपरीतकम खुलेपन वाले लोग दृढ़ता के माध्यम से पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं और उन्हें व्यावहारिक और डेटा-चालित के रूप में चित्रित किया जाता हैकभी-कभी उन्हें हठधर्मी और बंद दिमाग वाला भी माना जाता है।
  • खुलेपन कारक की व्याख्या और संदर्भ के बारे में कुछ असहमति बनी हुई है।

2. कर्तव्यनिष्ठा (कुशल/संगठित बनाम आसान/लापरवाह) (Conscientiousness) (Efficient/Organised Vs. Easy/Careless):

  • कर्तव्यनिष्ठा आत्म-अनुशासन दिखाने, कर्तव्यपरायणता से कार्य करने और उपलब्धि का लक्ष्य रखने की प्रवृत्ति है।
  • कर्तव्यनिष्ठा का तात्पर्य नियोजन, संगठन और निर्भरता से भी है।
  • उच्च कर्तव्यनिष्ठा को अक्सर हठ और जुनून के रूप में माना जाता है।
  • कम कर्तव्यनिष्ठा लचीलेपन और सहजता के साथ जुड़ी हुई है, लेकिन यह ढिलाई और विश्वसनीयता की कमी के रूप में भी प्रकट हो सकती है।

3. बहिर्मुखता: (आउटगोइंग/ऊर्जावान बनाम एकान्त/आरक्षित) (Extroversion): (Outgoing/Energetic vs Solitary/Reserved):

  • बहिर्मुखता ऊर्जा, सकारात्मक भावनाओं, मुखरता, सामाजिकता, बातूनीपन और दूसरों की संगति में उत्तेजना की तलाश करने की प्रवृत्ति का वर्णन करती है।
  • उच्च अपव्यय को अक्सर ध्यान आकर्षित करने वाले और दबंग के रूप में माना जाता है।
  • कम बहिर्मुखता एक आरक्षित, चिंतनशील व्यक्तित्व का कारण बनती है, जिसे अलग या आत्म-अवशोषित माना जा सकता है।

4. सहमतता: (मैत्रीपूर्ण/दयालु बनाम विश्लेषणात्मक/अलग) (Agreeable): (Friendly/Kind vs. Analytical/Aloof):

  • सहमतता दूसरों के प्रति शंकालु और विरोधी होने के बजाय दयालु और सहयोगी होने की प्रवृत्ति है।
  • यह किसी के भरोसेमंद और मददगार स्वभाव का भी एक पैमाना है, और क्या कोई व्यक्ति आम तौर पर अच्छे स्वभाव वाला है या नहीं।
  • उच्च सहमतता को अक्सर अनुभवहीन या विनम्र के रूप में देखा जाता है।
  • कम सहमत व्यक्तित्व अक्सर प्रतिस्पर्धी या चुनौतीपूर्ण लोग होते हैं, जिन्हें तर्कपूर्ण या अविश्वसनीय के रूप में देखा जा सकता है।

5. विक्षिप्तता: (संवेदनशील/नर्वस बनाम सुरक्षित/आत्मविश्वास) (Neuroticism): (sensitive/nervous vs. secure/confident):

  • विक्षिप्तता आसानी से अप्रिय भावनाओं का अनुभव करने की प्रवृत्ति है, जैसे कि क्रोध, चिंता, अवसाद और भेद्यता।
  • न्यूरोटिसिज्म भावनात्मक स्थिरता और आवेग नियंत्रण की डिग्री को भी संदर्भित करता है और कभी-कभी इसके निम्न ध्रुव, “भावनात्मक स्थिरताद्वारा संदर्भित किया जाता है।
  • स्थिरता की उच्च आवश्यकता एक स्थिर और शांत व्यक्तित्व के रूप में प्रकट होती है, लेकिन इसे उदासीन और असंबद्ध के रूप में देखा जा सकता है।
  • स्थिरता की कम आवश्यकता एक प्रतिक्रियाशील और उत्साही व्यक्तित्व का कारण बनती है, अक्सर बहुत गतिशील व्यक्ति, लेकिन उन्हें अस्थिर या असुरक्षित माना जा सकता है।

 

 

फ्रायड : व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त                      FREUD PSYCHOANALYTIC THEORY OF PERSONALITY

 


  

फ्रायड (Sigmund Freud 1856-1939) का जन्म यहूदी परिवार में चैकोस्लोवाकिया में हुआ। वह सन् 1885 में शाकों के पास पैरिस गया जहाँ उसने न्यूरोलॉजी का अध्ययन किया। बूअर (Joseph Breuer) के साथ उसका पहला प्रकाशन सन् 1839 में Psychic Mechanisms पर प्रकाशित हुआ। सन् 1895 में बूअर के साथ हिस्टीरिया का अध्ययन किया। Psychopathology of Everyday Life का प्रकाशन सन् 1904 में हुआ। फ्रायड के कुछ प्रमुख प्रकाशन निम्न प्रकार से है-Three Contributions to the Theory of Sex (1905), Unconscious (1915), Pleasure Principle (1920), The Ego & The Id (1923) आदि।

फ्रायड के विचार और रचनाएँ 210वीं शताब्दी के प्रथम चार दशकों तक असामान्य मनोविज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रभावपूर्ण रहीं। समाज विज्ञानों और साहित्य के क्षेत्र में फ्रायड के योगदानों से नये आयाम उत्पन्न हुए। फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्त मनोविज्ञान का और चिकित्सा मनोविज्ञान का यह पहला व्यापक सिद्धान्त है जिसमें मानव व्यवहार की व्याख्या अतल गहराइयों को स्पर्श करती हुई है। उसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोचिकित्सकीय अध्ययनों के आधार पर किया है।

 

फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त का उपागम (Approach) गत्यात्मक (Dynamic) है। गतिक उपागम (Dynamic Approach) में यह माना जाता है कि प्राणी वातावरण या परिवेश में (Organism in Environment) है। इस उपागम का अर्थ प्राणी बनाम वातावरण (Organism Vs. Environment) नहीं होता है। इस उपागम में यह माना जाता है कि व्यक्ति की वातावरण के साथ अन्तक्रिया होती है और इसी अन्तक्रिया (Interaction) के आधार पर उसमें दैहिक शीलगुण विकसित होते हैं। 

मनोविश्लेषण का अर्थ (Meaning of Psychoanalysis)

                       सामान्यतः मनोविश्लेषण के तीन अर्थ हैं--(1) प्रथम स्थान पर यह प्रविधि (Technique) है। इसके माध्यम से एक व्यक्ति के मानसिक जीवन की चेतन और अचेतन गतिशीलता की खोज की जाती है (J. F Brown, 1940) (2) दूसरे स्थान पर मनोविश्लेषण एक प्रकार की मनोचिकित्सा (Psychotherapy) है जिसके माध्यम से मनःस्ताप, मनोविक्षिप्तता या मनोविकृत रोगियों का पुनर्निर्माण या उपचार इस प्रकार किया जाता है कि वह जीवन की समस्याओं के प्रति बेहतर और सुखी समायोजन कर सके।

(3) तीसरे स्थान पर मनोविज्ञान में मनोविश्लेषण एक सम्प्रदाय (School) है। मनोविश्लेषण को चाहे सम्प्रदाय के रूप में लिया जाये, चाहे चिकित्सा पद्धति अथवा प्रविधि के रूप में लिया जाये। इन सभी क्षेत्रों में फ्रायड का प्रारम्भिक और प्रमुख योगदान है। मनोविश्लेषण चिकित्सा पद्धति के जनक है तथा मनोविश्लेषण सम्प्रदाय के संस्थापक हैं।

फ्रायड के सम्बन्ध में विसकाफ (L. J. Bischof, 1964) ने लिखा है कि, "यद्यपि, फ्रायड ने अपने प्रतिभावान लेखों में किसी भी सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु आलोचक उसके साहित्य से कुछ ऐसे मौलिक प्रत्ययों को चुन पाता है, जो उसके सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं तथा मानव व्यवहार के संगठनात्मक पक्षों को व्यक्त करते हैं।" प्रस्तुत अध्याय में फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यक्तित्व संरचना, व्यक्तित्व को गतिकी और व्यक्तित्व विकास का वर्णन किया गया है। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के अन्तर्गत वर्णित सभी विषय सामग्री आती है।

(1) मन का सिद्धान्त और व्यक्तित्व संरचना  

(Theory of Mind & Personality Structure)

मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का केन्द्र मन है। फ्रायड का मन का सिद्धान्त एक प्रकार का परिकल्पनात्मक प्रत्यय (Hypothetical Concept) है। फ्रायड ने मन के मुख्यतः दो भाग बताये हैं

(1) मन का गत्यात्मक पक्ष (Dynamic Aspect of Mind)मन के इस पक्ष के अन्तर्गत इदं (Id), अहं (Ego) तथा पराअहं (Superega) तीन अंग या संघटक (Components) हैं। 

(2) मन का स्थलाकृतिक पक्ष (Topological Aspect of Mind)-मन के इस पक्ष के अन्तर्गत चेतन (Conscious), अर्धचेतन (Preconscious) तथा अचेतन (Unconscious) तीन अंग या भाग हैं। मन का स्थलाकृतिक पक्ष और मानसिक क्रिया के स्तर (Topologcal Aspect of Mind and Levels of Mental Activity)

फ्रायड ने मन की तुलना आइसबर्ग (Iceberg) समुद्र में तैरती हुई बर्फ को पहाड़ से की है जिसका 9/10 भाग पानी के अन्दर और 1/10 भाग पानी के बाहर रहता है। पानी के अन्दर वाला भाग अचेतन, पानी के बाहर वाला भाग चेतन तथा जो भाग पानी की ऊपरी सतह से स्पर्श करता हुआ होता है, वह अर्धचेतन कहलाता है। फ्रायड का विचार है कि व्यक्ति की विभिन्न मानसिक क्रियाएँ इन्हीं तीन स्तरों पर होती हैं

1. चेतन (Conscious)-फायड के अनुसार, "चेतन मन, मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध तुरन्त ज्ञान से होता है।" वास्तव में चेतन का अर्थ ज्ञान से है। यदि कोई व्यक्ति लिख रहा है तो उसे लिखते की चेतना है। यदि किसी वस्तु को देख रहा है तो उसे देखने की चेतना है। व्यक्ति जिन शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के प्रति जागरूक होता है, वह चेतन स्तर पर घटित होती है। चेतन स्तर पर घटित होने वाली सभी प्रकार की क्रियाओं और प्रक्रियाओं की जानकारी या चेतना व्यक्ति को रहती है। यद्यपि चेतना में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं परन्तु चेतना में निरन्तरता होती है अर्थात कभी लुप्त नहीं होती है।

2. अर्ध चेतन (Preconscious or Foreconscious)- 

                                                                            फ्रायड के अनुसार, "यह मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय सामग्री से होता है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार कभी भी याद कर सकता है। मन के इस भाग में वह विषय सामग्री होती है जिसका प्रत्याहान करने से व्यक्ति को प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति जिन अनुभवों को याद करके अपने चेतन मन में लाता है, वह अनुभव मन के इसी भाग में पड़े रहते हैं। सीखने और आदतों से सम्बन्धित सामग्री मन के इसी भाग में एकत्रित रहती है।

3. अचेतन (Unconscious)-

                                          फ्रायड के अनुसार, "अचेतन मन, मन का वह भाग है जिसमें ऐसी विषय-सामग्री होती है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार याद करके चेतना में लाना चाहे तो भी नहीं ला सकता है। अचेतन मन में वह विचार, इच्छाएँ और संवेग आदि होते हैं जो 12 दमित होते हैं। मन का यह भाग भी चेतन और अर्ध चेतन की भाँति इस प्रकार का स्टोर हाउस है। इस मन की विषय-सामग्री निष्क्रिय होकर सक्रिय होती है। यह चेतन मन में आने का प्रयास करती रहती है। कई बार यह रूप बदलकर भी चेतन मन में प्रवेश करती है। अचेतन मन के सम्बन्ध में बाउन (1940) ने लिखा है कि We all have experienced material which we cannot recall at will, but which may occur to us automatically and which we know is present in our minds through hypnosis and other experimental procedures.

अचेतन मन का प्रत्यय सम्भवतः लिवनिट्ज (Leibnity, 1714) ने प्रस्तुत किया, परन्तु इस प्रत्यय की सर्वप्रथम वैज्ञानिक व्याख्या करने का श्रेय फ्रायड को है। अचेतन मन पर ही फ्रायड का मनोविज्ञान, विशेष रूप से उसकी चिकित्सा पद्धति मनोविश्लेषण पर आधारित है। फ्रायड का विचार है कि जिस प्रकार आइसबर्ग से टकराकर बड़े-बड़े जहाज टूट जाते हैं, उसी प्रकार अचेतन की क्रियाएं यद्यपि दिखायी नहीं देती हैं फिर भी व्यक्तित्व को नष्ट कर सकती हैं या विकृतियाँ उत्पन्न कर सकती हैं। फ्रायड का यह विचार है कि अचेतन मन कामशक्ति (Libido) का स्टोर हाउस है। इगो और सुपरइगो द्वारा सेन्सर की हुई और दमित की हुई इच्छाएँ, विचार, भावनाएँ, प्रेरणाएँ और संवेग आदि इस मन की विषय-सामग्री होते हैं। जो सुखवाद सिद्धान्त से संचालित होता है, वह इस मन का स्टोरकीपर होता है। फ्रायड ने दैनिक जीवन की भूलों, स्वप्न और अभिप्रेरणाओं आदि की व्याख्या अचेतन मन की सामग्री के आधार पर की है।

अचेतन मन की फ्रायड के अनुसार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार से है

  • *       अचेतन मन की विषय-सामग्री की प्रकृति गत्यात्मक होती है।
  • *       अचेतन मन की विषय-सामग्री मानव व्यवहार का महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।
  • *       अचेतन मन की विषय-सामग्री की अभिव्यक्ति स्वप्नों और मानसिक रोगों में होती है। 
  • *       अचेतन द्वारा सभी अतृप्त इच्छाओं को स्वीकार कर लिया जाता है। 
  • *       अचेतन में निहित सामग्री की अभिव्यक्ति क्रियाओं द्वारा होती है, शब्दों द्वारा नहीं होती है।
  • *       अचेतन में तर्क और नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता है। 
  • *       अचेतन की सामग्री सुखवाद सिद्धान्त पर आधारित होती है।
  • *       अचेतन मन की सामग्री का स्वरूप लैंगिक (Sexual) होता है।

मन के गत्यात्मक पक्ष से सम्बन्ध-मन के गत्यात्मक पक्ष-इड, इगो और सुपरडगो का चेतन, अर्ध-चेतन और अचेतन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह पहले बताया जा चुका है कि चेतन, अचेतन और अर्थ-चेतन मन एक प्रकार के स्टोर हाउस हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के विचार, इच्छाएं, प्रेरणाएं, संवेग और भावनाएं आदि होती हैं। इड, इगो और सुपरइगो के लिए यह स्टोर हाउस कार्यक्षेत्र हैं। इड का कार्यक्षेत्र अचेतन है। इगो मुख्यतः चेतन स्तर पर कार्य करता है। साथ-ही-साथ इसका कुछ कार्य अर्ध-चेतन और अचेतन स्तर पर भी होता है। इड की भाँति सुपरइगो भी चेतन, अर्ध-चेतन और अचेतन स्तर पर कार्य करता है। मन का गत्यात्मक पक्ष और व्यक्तित्व संरचना (Dynamic Aspect of Mind & Personality Structure)

फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व की संरचना इड, इगो और सुपरइगो से होती है। हमेशा व्यक्ति का व्यवहार इन तीन अवस्थाओं (Systems) इड, इगो और सुपरइगो की अन्तक्रियाओं का परिणाम है (Behaviour is nearly always the product of an interactions among these three systems) हाल और लिण्डजे (G. H. Hall & Lindzy, 1972) के अनुसार इन तीन व्यवस्थाओं में से कोई भी एक व्यवस्था पृथक् रूप से कार्य नहीं करती है। इन तीनों व्यवस्थाओं की अन्तक्रिया इतनी घनिष्ठ होती है कि किसी एक व्यवस्था के मानव जीवन पर प्रभाव का अलग से मूल्यांकन करना कठिन होता है। ब्राउन (1940) ने लिखा है कि

"Freud was the first modern psychologist to attempt a scientific description of the parts of the self or personality and to relate these to both normal and pathologic behaviour. He speak the normal adult as being composed of the Id, Ego and Superego". 

 (A) इदम् (ld)

हॉल और लिण्डजे (1972) के अनुसार इड व्यक्तित्व का अत्यन्त अस्पष्ट अगम्य और अव्यवस्थित भाव है (The Id is the obscure, inaccessible and unorganized part of personality) | फ्रायड के अनुसार इड मानसिक जगत या आन्तरिक जगत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण इड को फ्रायड ने वास्तविक मानसिक सत्यता ( True Psychic Reality) कहा है। इसका बाह्य जगत की वास्तविकता से सीधा सम्बन्ध होकर इड के माध्यम से होता है। इगो (और सुपरडगो) के विकास का आधार इड ही है। इड सुखवाद सिद्धान्त से संचालित होता है।

इड की उत्पत्ति (Origin of Id)

जन्म के समय शरीर की संरचना में जो कुछ भी निहित होता है, वह पूर्णतः इड होता है। दूसरे शब्दों में जन्म के समय मानव शिशु का मन पूर्ण रूप से इड है, अतः इड जन्मजात और वंशानुगत है। इसे फ्रायड ने असंख्य पूर्वजों के स्मृति अवशेषों का भण्डार माना है।

इड की विषय-सामग्री (Contents of the Id) 

तात्कालिक सन्तुष्टि की इच्छाएँ और विचार ही इड की प्रमुख विषय सामग्री है। इड की उपर्युक्त इच्छाओं और विचारों का सम्बन्ध आत्मगत वास्तविकता (Subjective Reality) से होता है। वातावरण को वास्तविकता से इड का कोई भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। हॉल और लिडने (1972) के अनुसार- "इड की विषय-सामग्री अनश्वर (Immortal) है क्योंकि वह सत्यगत प्रभावों से मुक्त है। इड तो कुछ भूलता है और ही इसमें कुछ भूतकालीन होता है।" इड का नैतिकता, तार्किकता, समय, स्थान और मूल्यों आदि से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इड व्यक्तित्व का अपेक्षाकृत अधिक चलायमान पक्ष है।

 

इड के कार्य (Functions of the Id) 

इड का मुख्य कार्य शारीरिक इच्छाओं की सन्तुष्टि है। इड किसी भी प्रकार के तनाव से तात्कालिक छुटकारा पाना चाहता है। तात्कालिक तनाव-निवारण को ही सुखवाद नियम ( Pleasure Principle) कहा गया है। दूसरे शब्दों में इड अपने उद्देश्यों की पूर्ति सुखवाद नियम के आधार पर करता है। सुख की प्राप्ति और दुःख के निवारण हेतु इड के दो प्रकार के कार्य है

(1) सहज क्रियाएँ (Reflex Actions)- सहज क्रियाएँ जन्मजात होती हैं तथा स्वचालित भी होती हैं, उदाहरण के लिए छोकना और पलक झपकना आदि। सभी व्यक्ति सहज क्रियाओं की पूर्ति के बाद सन्तोष का अनुभव करते हैं।

(ii) प्राथमिक क्रियाएँ (Primary Processes) तनाव दूर करने हेतु प्राथमिक प्रक्रियाएँ व्यक्ति के सामने पदार्थ को प्रतिमा निर्मित करती हैं, उदाहरण के लिए एक प्यासे व्यक्ति के सामने पानी की प्रतिमा प्रस्तुत कर उसको प्यास को सन्तुष्टि करना। यहाँ प्रतिमा उपस्थित करना प्राथमिक प्रक्रिया का कार्य है। प्राथमिक प्रक्रियाएँ सभी इच्छित वस्तुओं की प्रतिमाएँ उपस्थित कर व्यक्ति को क्षणिक सन्तुष्टि देती हैं। इस प्रकार इच्छित वस्तु की प्रतिमा के द्वारा सन्तुष्टि इच्छापूर्ति (Wish Fulfilment) कहलाता है।

इच्छापूर्ति एक प्रकार का विभ्रमात्मक (Hallucinatory) अनुभव है। प्यासा व्यक्ति प्यास की प्रतिमा से केवल क्षणिक सन्तुष्टि प्राप्त करता है। स्थायी सन्तुष्टि व्यक्ति Secondary Process द्वारा प्राप्त करता है। इड का एकमात्र मनोवैज्ञानिक कार्य इच्छा उत्पन्न करना है। (The sole psychological function with which the Id is endowed is that of generating wishes.-Hall & Lindzy, 1972) |

(B) अहं (Ego)

फ्रायड का इगो से तात्पर्य आत्म (Self) या चेतन बुद्धि (Conscious Intelligence) है। इगो का सम्बन्ध, एक ओर बाह्य वास्तविकता से होता है तथा दूसरी ओर इड से होता है। यह व्यक्ति की इच्छाओं की सन्तुष्टि सामाजिक और भौतिक वास्तविकता के सन्दर्भ में करता है। यह इड की इच्छाओं और भौतिक जगत की वास्तविकता के मध्य समायोजनकर्ता का कार्य करता है। (It is the adjustor between the wishes of the Id and the demands of physical reality.- J. E. Brown. 1940) इगो, इड और सुपरइगो के मध्य संयोजनकर्ता का कार्य करता है। 

इगो की उत्पत्ति (Origin of Ego )

शिशु की आयु बढ़ने के साथ-साथ वह वातावरण की वास्तविकताओं की ओर उन्मुख होने लगता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मेरा और मुझे जैसे प्रत्ययों का अर्थ स्पष्ट होने लगता है। धीरे-धीरे वह समझने लगता है कि कौन-सी वस्तुएँ उसकी हैं और कौन-सी अन्य लोगों की हैं। इगो इड का ही एक विशिष्ट अंश है जो बाह्य वातावरण के प्रभाव के कारण विकसित होता है। चूंकि इड वंशानुगत होता है। अतः वंशानुगत पदार्थों पर वातावरण के प्रभावों के परिणामस्वरूप इगो का विकास होता है। 

इगो और इड में अन्तर और सम्बन्ध (Distinction and Relation between Id & Ego)

इड का सम्बन्ध केवल व्यक्तिगत (Subjective) वास्तविकता से होता है जबकि इगो मन में और बाह्य जगत में उपस्थित वस्तुओं में अन्तर करता है (The Id knows on the subjective reality of the mind. Ego distinguishes between things in the mind in the external world) दूसरा अन्तर यह है कि इगो को इड से ही शक्ति प्राप्त होती है। इगो इड का ही एक विकसित रूप है, अतः इगो और इड में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इगो इड से ही अपनी शक्ति प्रदान करता है क्योंकि उसमें अपनी कोई शक्ति नहीं होती हैं। इगो का उद्देश्य इड इच्छाओं की पूर्ति करना है, बाधा उपस्थित करना नहीं है। पाठकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि इगो का कोई अलग अस्तित्व नहीं है। यह व्यक्तित्व का केन्द्र है जो इड और बाह्य वातावरण के मध्य तथा इड और सुपरइगो के मध्य संयोजन का कार्य करता है। 

इगो की विषय-सामग्री (Contents of the Ego) बाह्य वातावरण का एकत्रित ज्ञान ही इगो की विषय-सामग्री है।

इगो के कार्य (Functions of the Ego) इगो तर्कसंगत (Logical) होता है तथा इगो दिक्-काल (Space-Time) के सम्बन्ध को जानता है। अतः इसका मुख्य कार्य बाह्य वातावरण के खतरों से जीवन की रक्षा करना है। यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति वास्तविकता के नियम (Reality Principle) के आधार पर करता है। यह पहले बताया जा चुका है कि आवश्यकताओं को वास्तविक पूर्ति से सम्बन्धित प्रक्रिया द्वितीयक प्रक्रिया (Secondary Process) जो इड द्वारा सम्पादित होती है। यह सुख के नियम ( Pleasure Principle) या तात्कालिक तृप्ति का विरोधी नहीं है बल्कि उपयुक्त परिस्थिति के आते ही यह तात्कालिक तृप्ति में सहायता करता है। चूंकि यह व्यक्तित्व का बौद्धिक पक्ष है अतः यह तात्कालिक तृप्ति के लिए उपर्युक्त परिस्थिति को खोजने या उत्पन्न करने का कार्य भी करता है। संक्षेप में, इगो के कुछ प्रमुख कार्य निम्नलिखित प्रकार से हैं

(1) पोषण सम्बन्धी शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करना 

(2) शरीर की सुरक्षा की आवश्यकता की पूर्ति करना।

(3) बाह्य वातावरण की वास्तविकताओं के अनुसार इड के आवेशों को अभिव्यक्त

(4) इड और सुपर इगो की विरोधी इच्छाओं से समायोजन को स्थापित करना। 

(5) नींद की अवस्था में भी यह स्वप्नों पर सेन्सरशिप बनाये रखता है।

(6) बाधा या चिन्ता के उपस्थित होने पर व्यक्तित्व की उपयुक्तता की रक्षा करना है। कई बार इस प्रकार की रक्षा इगो मानसिक मनोरचनाओं Mechanisms) की सहायता से करता है।

(C) सुपरइगो (Superego)

व्यक्तित्व का यह अंश सबसे बाद में विकसित होता है। यह व्यक्तित्व का नैतिक पक्ष है। यह वह मुख्य शक्ति है जो व्यक्ति का समाजीकरण करती है। बिस्काफ (L. J. Bischof, 1964) ने फ्रायड के विचारों को स्पष्ट करते हुए सुपरइगो के सम्बन्ध में लिखा है कि

The superego is the ethical-moral arm of the personality. It makes the decisions whether an activity is good or bad according to the standards of society which it accepts. Social laws mean nothing to it unless it has accepted them and internalized them. 

सुपरइगो की उत्पत्ति (Origin of Superego)

बालक की आयु जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे-वैसे उसका समाजीकरण होता जाता है। धीरे-धीरे वह भले-बुरे में अन्तर समझने लग जाता है। इस समाजीकरण प्रक्रिया में ही बाल्यावस्था में सुपरइगो का विकास इगो से होता है। संक्षेप में, सुपरइगो इगो का ही एक विशिष्ट विकसित रूप है। सुपरइगो के विकास में तादात्म्य (Identification) और अन्तःश्चेपण (Introjection) की मानसिक मनोरचनाएँ सहायक होती हैं। सुपरइगो के दो पक्ष है—(1) आदर्श अहं (Ego Ideal), (2) अन्तरात्मा (Conscience) आदर्श अहं सुपरइगो का घनात्मक पक्ष है जिसमें समाज और संरक्षकों से सीखी गयी बातें या गुण सम्मिलित होते हैं। आदर्श अहं द्वारा व्यक्ति यह सीखता है कि समाज में क्या उचित है ? अन्तरात्मा सुपरइगो का ऋणात्मक पक्ष है जिसमें संरक्षक और समाज जिन बातों को बुरा समझते हैं, वह अवगुण सम्मिलित होते हैं। अन्तरात्मा द्वारा व्यक्ति यह सीखता है कि समाज में क्या अनुचित है, उसके संरक्षक किन बातों को अनुचित समझते हैं आदि। जब कोई व्यक्ति समाज के आदर्शों और मूल्यों के प्रतिकूल कोई कार्य करता है तो अन्तरात्मा के कारण उसमें चिन्ता और अपराध भावना (Guilt Feeling) उतन्न हो सकती है। 

सुपरइगो के कार्य (Functions of Superego)वह इगो का ही विकसित किन्तु विभेदित रूप है जो सामाजिकता और नैतिकता का प्रतिनिधित्व करता है। अतः इसके कार्य इड और इगो की अपेक्षा भिन्न हैं। यह इगो के उन सभी कार्यों पर रोक लगाती है जो सामाजिक और नैतिक नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, यह मूलप्रवृत्तियों की सन्तुष्टि को रोकती है। सुपरहगो का इगो के प्रति कार्य और व्यवहार लगभग वैसा ही होता है जैसा एक बच्चे के प्रति माता-पिता का व्यवहार होता है। संक्षेप में सुपरइगों के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं

(1) इड के अनैतिक, सामाजिक और कामुक आवेगों पर रोक लगाना  

(2) इगो के आवेगों को नैतिक और सामाजिक लक्ष्यों की ओर ले जाने का प्रयास करना।

(3) पूर्ण सामाजिक और आदर्श प्राणी बनाने हेतु प्रयास करना  

इड इगो और सुपरइगो का पारस्परिक सम्वन्ध (Mutual Relation of Id, Ego and Superego)

यह पहले बताया जा चुका है कि इड, इगो और सुपरङगो से व्यक्तित्व की संरचना होती है। यह तीनों ही इकाइयाँ गतिशील हैं। इन तीनों के सम्बन्ध में ब्राउन (1940) ने लिखा है, -The Id is primary biologically conditioned, the Ego primarily conditioned by the physical environment but the superego is primarily sociologically or culturally conditioned. इड सुख के नियम ( Pleasure Principle) से इगो वकता नियम (Reality Principle) से तथा सुपरइगो निरपेक्ष नियोग (Categorical Imperative) नियम से नियमित होती है।

सामान्य व्यक्तित्व के इन तीनों ही अगों से पर्याप्त मात्रा में सामंजस्य पाया जाता है। इन तीनों इकाइयों में जितना ही पारस्परिक विरोध या खींचातानी होती है, व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही अधिक असामान्य होता है और उसके व्यक्तित्व का विघटन उतना ही अधिक होता है। सामान्य व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है कि इन तीनों इकाइयों में सामंजस्य और समन्वय बना रहे। जब इन तीनों इकाइयों में से कोई एक अन्य दो की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हो जाती है तो समन्वय और सामजस्य बिगड़ जाता है और विघटन प्रारम्भ हो जाता है। इगो व्यक्तित्व का केन्द्रक (Nucleus) है। यह इड सुपरइगो और वातावरण की वास्तविकताओं के मध्य समन्वय और सामंजस्य बनाकर क्रिया या व्यवहार करता है। 

इड, सुपरइगो और वातावरण की वास्तविकताओं के मध्य इगो जितना ही अधिक सामंजस्य करने की समझ होगी व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही अधिक स्थायी होगा। फ्रायड के अनुसार समस्त व्यक्तित्व एक इकाई के रूप में कार्य करता है। हॉल और लिंडजे (1972) ने फ्रायड के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि इड, इगो और सुपरइगो को एक-दूसरे से पृथक करने के बाद भी उन्हें आपस में एक-दूसरे में एकरस (Merge) होते हुए समझना चाहिए (Affer separating them, “We must allow what has been separated to merge again.")

इड, इगो और सुपरइगो के आवेगों को स्पष्ट करने हेतु निम्नलिखित उदाहरण दिया जा सकता है-एक सुनसान सड़क पर एक सुन्दर नवयुवती को देखकर एक नवयुवक के मन में यह विचार सकता है कि, "मैं इसे छेडूं, इसका चुम्बन करूं, फिर और कार्यों के लिए भी राजी कर लूँ" इस प्रकार की विचारधारा इड आवेग की अभिव्यक्ति करती है। कुछ ही समय में उस नवयुवक के मन में यह भी विचारधारा उत्पन्न हो सकती है कि नवयुवती को यहाँ छेड़ना और चुम्बन लेना आदि ठीक नहीं है। यदि किसी ने देख लिया तो पिटाई हो जायेगी या पुलिस के हवाले हो जाऊंगा। यह नवयुवती थोड़ी दूर और आगे जाए तो वहाँ कोई नहीं देखेगा, वहाँ इसको छेड़ना अधिक उपयुक्त है। इस प्रकार की विचारधारा वास्तविकता से सम्बन्धित है जिसे इगो की अभिव्यक्ति कह सकते हैं। इसी प्रकार निम्न विचारधारा सुपरइगो का आवेग है-"कुछ समय बाद नवयुवक में यह भी विचार सकता है कि किसी लड़की को छेड़ना या चुम्बन लेना बुरी बात है। समाज में इस प्रकार का व्यवहार करना बुरा समझा जाता है। "

 


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